जर्मनी की रिफ्यूजी नीति में बदलाव की तैयारी

जर्मनी की रिफ्यूजी नीति में बदलाव की तैयारी

जर्मनी की रिफ्यूजी नीति में बदलाव की तैयारी

जर्मनी की रिफ्यूजी नीति में बदलाव के मामले पर चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने सोमवार को 16 राज्यों के साथ एक उच्च स्तरीय बैठक की। देश की रिफ्यूजी पॉलिसी में इस बदलाव की आखिर जरूरत क्यों है?

 

जर्मनी की राजधानी बर्लिन में हर दिन करीब 200 रिफ्यूजी पहुंचते हैं। यहां आने के बाद, उन्हें शुरुआत में कुछ खास जगहों पर रखा जाता है जैसे पूर्व में टीगेल एयरपोर्ट वाली जगह, जहां थोड़े समय तक रहना होता है, इससे पहले कि शहर में कहीं और बसने का इंतजाम किया जाए।

 

लेकिन रहने की जगह मिलना बहुत मुश्किल है। कुछ रिफ्यूजी एक साल से टीगेल में ही रह रहे हैं. फिलहाल, करीब 4,000 लोग यहां रहते हैं और इसका विस्तार करके 8,000 लोगों को रखने की क्षमता विकसित की जा रही है।

 

बर्लिन जैसा ही हाल, देश के दूसरे शहरों और कस्बों का भी है. 2023 में अब तक, 2,20,000 आप्रवासियों ने शरणार्थी बनने के लिए एप्लीकेशन दी है और यूक्रेन युद्ध की वजह से आए 10 लाख यूक्रेनी रिफ्यूजियों में, ज्यादा से ज्यादा लोग सरकारी मदद से घर लेने के लिए रजिस्टर कर रहे हैं।

 

पूरे देश में आपात स्थिति

पूरे जर्मनी में, मेयर और जिला परिषदें कह रही हैं कि उन्होंने इस बात का बिल्कुल अंदाजा नहीं है कि निश्चित संख्या में रिफ्यूजी बांटे जाने के सरकारी फॉर्मूला के तहत, उनके यहां भेजे जा रहे रिफ्यूजियों को कहां टिकाना है।

 

अक्टूबर में, जर्मनी की 11,000 म्यूनिसिपैलिटी में से 600 ने एक सर्वे में हिस्सा लिया था जिसमें 60 फीसदी का कहना था कि स्थिति चुनौतीपूर्ण है लेकिन काबू में है। हालांकि 40 फीसदी ने बताया कि वह क्षमता से ज्यादा बोझ से दबी हैं या इमरजेंसी मोड में हैं।

 

रहने की जगह ना होना तो बस एक कारक है। प्रशासनिक स्टाफ की कमी, बच्चों के लिए नर्सरी, स्कूल, जर्मन भाषा कोर्स और तनावग्रस्त रिफ्यूजियों के लिए काउंसिलिंग सेवा की भी भारी किल्लत है।

 

जर्मन असोसिएशन ऑफ टाउंस एंड म्यूनिसिपैलिटीज की प्रवक्ता मिरियाम मार्निष मानती हैं कि इसी वजह से लोगों में सरकारी आप्रवासन नीति पर असंतोष इसलिए बढ़ रहा है। कई इलाकों में रिफ्यूजियों को इंटीग्रेट करना बिल्कुल संभव नहीं है क्योंकि संसाधन खत्म हो चुके हैं।

 

कर्मचारियों के स्तर पर भी और लोगों को स्वीकार करने के मामले में भी। सर्वे में हिस्सेदारी करने वालों ने जो उपाय सुझाए, उसमें आप्रवासन पर लगाम लगाना शामिल है ताकि उनके इलाकों में कम लोग भेजे जाएं या बिल्कुल ही ना भेजे जाएं।

 

इसी के साथ, ज्यादा सरकारी फंड की मांग और लंबी अवधि में पैसे मिलते रहने का आश्वासन भी मांगा गया है। लोगों ने रिहायश को लेकर ज्यादा मदद की मांग की है जिसमें कानूनी प्रक्रिया को आसान करना और सोशल हाउसिंग को बढ़ाना भी शामिल है।

 

डिपोर्टेश के नए कानूनों से निराशा

सर्वे में शामलि लोगों में से केवल 1/5 को लगता है कि जर्मनी से ज्यादा लोगों को निकाला जाएगा यानी डिपोर्ट किया जाएगा। जर्मनी की हिल्डेशेम यूनिवर्सिटी में माइग्रेशन पर शोध करने वाले बॉरिस कुह्न कहेत हैं कि संघीय और राज्यों की राजनीति में यह मसला कितना अहम है, यह काफी नहीं है।

 

जर्मनी में करीब 2,50,000 लोग ऐसे हैं जिनकी शरणार्थी बनने की एप्लीकेशन खारिज हो चुकी है। कुछ लोगों का पता लगा पाना ही मुश्किल है। लेकिन इनमें से करीब 2,00,000 लोग ऐसे हैं जिन्हें वापिस भेजा ही नहीं जा सकता क्योंकि उनके देश उन्हें नहीं लेंगे या फिर ये लोग युद्धग्रस्त देशों के वासी हैं या ऐसी किसी स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहे हैं जिसका इलाज उनके देश में नहीं हो सकता।

 

अक्टूबर महीने के अंत में, सरकार ने डिपोर्टेशन की प्रक्रिया आसान करने के लिए एक बिल पेश किया। हालांकि शहरों और कस्बों में रिफ्यूजियों की ज्यादा तादाद की वजह नए आने वाले रिफ्यूजी हैं। कुह्न कहते हैं, इसका मतलब यह है कि डिपोर्टेशन नियमों को कड़ा करने से कुछ खास हासिल नहीं हो सकता।

 

सरकारी मदद पर दोबारा विचार

नेता इस बात पर भी बहस कर रहे हैं कि क्या रिफ्यूजियों को मिलने वाली सरकारी मदद को सीमित किया जाना चाहिए, जो कि दूसरे ईयू देशों के मुकाबले जर्मनी में कहीं ज्यादा उदार है। कंजरवेटिव नेता इसे रिफ्यूजियों के जर्मनी की तरफ खिंचाव की एक वजह मानते हैं।

 

उनकी सलाह है कि अब आने वाले रिफ्यूजियों को बहुत कम नकद मदद दी जाए या दी ही नहीं जाए। आप्रवासन मामलों पर शोध करने वाले इसका विरोध करते हैं। बर्लिन स्थित जर्मन सेंटर फॉर इंटीग्रेशन एंड माइग्रेशन रिसर्च के निकलास हादेर का कहना है, गैर-नकदी सहायता देने की 1990 में की गई, फिर दोबारा 2015 में भी लेकिन यह व्यावहारिक साबित नहीं हुई।

 

कानूनी तौर पर इस तरह की सहायता देना मुमकिन है लेकिन राज्य सरकारें और स्थानीय प्रशासन ऐसा नहीं करते क्योंकि इसके लिए और ज्यादा संसाधनों की जरूरत होती है। यह नकद मदद देने के मुकाबले ज्यादा महंगा पड़ता है।

 

नकद की जगह डेबिट कार्ड

जो रिफ्यूजी शुरुआत में आते हैं, उन्हें रहने और खाने के अलावा, निजी खर्चों जैसे फोन का सिम, यात्रा के लिए टिकट या प्रसाधन से जुड़ी चीजों के लिए 150 यूरो प्रतिमाह दिए जाते हैं। यह नकद सहायता कानूनी जरूरी नियम है और कोई भी इसे मनमाने ढंग से हटा नहीं सकता।

 

व्यवस्था में जिस एक बदलाव की चर्चा है, वह है कैश देने की जगह पेमेंट कार्ड का इस्तेमाल. इस तरह के डेबिट कार्ड का इस्तेमाल फ्रांस जैसे देशों में किया जा रहा है। इसके तहत, रिफ्यूजियों को नकद राशिकी बजाय एक कार्ड दिया जाएगा। सरकारी विभाग इसमें नियमित पैसे डालेंगे जिसका इस्तेमाल सुपरमार्केट में किया जा सकेगा।

 

लेकिन इस कार्ड से पैसे निकालने की सुविधा नहीं दी जाएगी। हालांकि हाडेर जैसे रिसर्चर मानते हैं कि इसका भी खास फायदा नहीं होगा। वह कहते हैं, हम सभी को पता है कि एक कैश कार्ड में डाले गए पैसे को कैश में कैसे बदलना है।